मैं क्या दिखाई देती नहीं बुलबुलों को भी
पहने तो ऐसे मिल गए तेरे बदन में फूल
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जर्राह के सामने खोला फोड़ा
अक्स-ए-रुख़-ए-गुलगूँ से तमाशा नज़र आया
हो गया हूँ मैं नक़ाब-ए-रू-ए-रौशन पर फ़क़ीर
शुक्र है जामा से बाहर वो हुआ ग़ुस्से में
आशिक़ ही फ़क़त नहीं है जंजालों में
पेच फ़िक़रे पर किया जाता नहीं
नमाज़ शुक्र की पढ़ता है जाम तोड़ के शैख़
बस कि है पेश-ए-नज़र पस्त-ओ-बुलंद-ए-आलम
क्यूँकर शिकार-ए-हुस्न न खेलें यहाँ के लोग
दश्त-ए-वहशत में नहीं मिलता है साया काँपता
उम्र बाक़ी राह-ए-जानाँ में बसर होने को है
होती है हार जीत पिन्हाँ बात बात में