दश्त-ए-वहशत में नहीं मिलता है साया काँपता
मैं हूँ सौदाई मिरा हम-ज़ाद सौदाई नहीं
Wasi Shah
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आस्तीन-ए-सब्र से बाहर न निकलेगा अगर
जो ज़ौक़ है कि हो दरयाफ़्त आबरू-ए-शराब
जाती है दूर बात निकल कर ज़बान से
लेटे जो साथ हाथ लगा बोसा-ए-दहन
उलझा है मगर ज़ुल्फ़ में तक़रीर का लच्छा
ज़ाहिदो पूजा तुम्हारी ख़ूब होगी हश्र में
ऐ बुत जो शब-ए-हिज्र में दिल थाम न लेते
क्या मज़ा पर्दा-ए-वहदत में है खुलता नहीं हाल
आँखों में नहीं सिलसिला-ए-अश्क शब-ओ-रोज़
मैं क्या दिखाई देती नहीं बुलबुलों को भी
करते हैं मस्जिदों में शिकवा-ए-मस्ताँ ज़ाहिद
इन रोज़ों लुत्फ़-ए-हुस्न है आओ तो बात है