इन रोज़ों लुत्फ़-ए-हुस्न है आओ तो बात है
दो दिन की चाँदनी है फिर अँधियारी रात है
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अपने आक़ा की हर घड़ी याद में हूँ
मैं क्या दिखाई देती नहीं बुलबुलों को भी
राह में सूरत-ए-नक़्श-ए-कफ़-ए-पा रहता हूँ
याद उस बुत की नमाज़ों में जो आई मुझ को
वहशत में बसर होते हैं अय्याम-ए-शबाब आह
किस तरह ख़ुश हों शाम को वो चाँद देख कर
तिरे कूचे से जुदा रोते हैं शब को आशिक़
ख़ाल-ओ-ख़त से ऐब उस के रू-ए-अक़्दस को नहीं
आँखों में नहीं सिलसिला-ए-अश्क शब-ओ-रोज़
चेहरा तमाम सुर्ख़ है महरम के रंग से
पेच फ़िक़रे पर किया जाता नहीं
ज़िंदा-ए-जावेद हैं मारा जिन्हें उस शोख़ ने