जान देता हूँ मगर आती नहीं
मौत को भी नाज़-ए-मअशूक़ाना है
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जर्राह के सामने खोला फोड़ा
हर चंद गुनाहों से हूँ मैं नामा सियाह
अब के बहार-ए-हुस्न-ए-बुताँ है कमाल पर
झूटी बातें मुझे याद आईं जो उस की शब-ए-हिज्र
याद उस बुत की नमाज़ों में जो आई मुझ को
तस्वीर-ए-ज़ुल्फ़-ओ-आरिज़-ए-गुलफ़ाम ले गया
करता है बाग़-ए-दहर में नैरंगियाँ बसंत
आँखों में नहीं सिलसिला-ए-अश्क शब-ओ-रोज़
फ़ौज-ए-मिज़्गाँ का कुछ इरादा है
की तर्क मैं ने शैख़-ओ-बरहमन की पैरवी
मुँह तक भी ज़ोफ़ से नहीं आ सकती दिल की बात
विर्द-ए-इस्म-ए-ज़ात खोला चाहता है ये गिरह