विर्द-ए-इस्म-ए-ज़ात खोला चाहता है ये गिरह
मेरे दिल पर दाँत है अल्लाह की तश्दीद का
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तिरछी नज़र से देखिए तलवार चल गई
काबे से मुझ को लाए सवाद-ए-कुनिश्त में
ग़म सहते हैं पर ग़म्ज़ा-ए-बेजा नहीं उठता
देखा है आशिक़ों ने बरहमन की आँख से
जब हम-बग़ल वो सर्व क़बा पोश हो गया
आस्तीन-ए-सब्र से बाहर न निकलेगा अगर
किस तरह ख़ुश हों शाम को वो चाँद देख कर
लग गई आग आतिश-ए-रुख़ से नक़ाब-ए-यार में
मैं जुस्तुजू से कुफ़्र में पहुँचा ख़ुदा के पास
बिगड़ी हुई है सारी हसीनों की बनावट
अबरू की तेरी ज़र्ब-ए-दो-दस्ती चली गई
लेटे जो साथ हाथ लगा बोसा-ए-दहन