किस तरह ख़ुश हों शाम को वो चाँद देख कर
आता नहीं है मशअ'ल-ए-मह का धुआँ पसंद
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सख़्ती-ए-दहर हुए बहर-ए-सुख़न में आसाँ
मुँह तक भी ज़ोफ़ से नहीं आ सकती दिल की बात
लगाईं ताक के उस मस्त ने जो तलवारें
ज़ाहिदो पूजा तुम्हारी ख़ूब होगी हश्र में
सिलसिला गबरू मुसलमाँ की अदावत का मिटा
हाथ मलवाती हैं हूरों को तुम्हारी चूड़ियाँ
बोसा-ए-लब ग़ैर को देते हो तुम
एहसान नहीं ख़्वाब में आए जो मिरे पास
पेच फ़िक़रे पर किया जाता नहीं
कुफ्र-ओ-इस्लाम ने मक़्सद को पहुँचने न दिया
फ़स्ल-ए-बहार आई है पैमाना चाहिए