कुफ्र-ओ-इस्लाम ने मक़्सद को पहुँचने न दिया
काबा-ओ-दैर को संग-ए-रह-ए-मंज़िल समझा
Ahmad Faraz
Mir Taqi Mir
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Gulzar
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Anwar Masood
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सिलसिला गबरू मुसलमाँ की अदावत का मिटा
क़ैद से नजात
अपने आक़ा की हर घड़ी याद में हूँ
की तर्क मैं ने शैख़-ओ-बरहमन की पैरवी
जाती है दूर बात निकल कर ज़बान से
कुछ नहीं हासिल सिपर को चीर को या तलवार तोड़
गालियाँ ज़ख़्म-ए-कुहन को देख कर देती हो क्यूँ
काबे से मुझ को लाए सवाद-ए-कुनिश्त में
एहसान नहीं ख़्वाब में आए जो मिरे पास
वो ज़ुल्फ़ हवा से मुझे बरहम नज़र आई
तस्वीर-ए-ज़ुल्फ़-ओ-आरिज़-ए-गुलफ़ाम ले गया
है ईद लाओ मय-ए-लाला-फ़ाम उठ उठ कर