सिलसिला गबरू मुसलमाँ की अदावत का मिटा
ऐ परी बे-पर्दा हो कर सुब्हा-ए-ज़ुन्नार तोड़
Mohsin Naqvi
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मिल मिल गए हैं ख़ाक में लाखों दिल-ए-रौशन
आँखों में नहीं सिलसिला-ए-अश्क शब-ओ-रोज़
उलझा है मगर ज़ुल्फ़ में तक़रीर का लच्छा
वहाँ पहुँच नहीं सकतीं तुम्हारी ज़ुल्फ़ें भी
आस्तीन-ए-सब्र से बाहर न निकलेगा अगर
वहशत में बसर होते हैं अय्याम-ए-शबाब आह
क्या मज़ा पर्दा-ए-वहदत में है खुलता नहीं हाल
उस्ताद के एहसान का कर शुक्र 'मुनीर' आज
राह में सूरत-ए-नक़्श-ए-कफ़-ए-पा रहता हूँ
कोठे पे चेहरा-ए-पुर-नूर दिखाया सर-ए-शाम
मैं क्या दिखाई देती नहीं बुलबुलों को भी
बस कि है पेश-ए-नज़र पस्त-ओ-बुलंद-ए-आलम