सुनती है रोज़ नग़्मा-ए-ज़ंजीर-ए-आशिक़ाँ
वो ज़ुल्फ़ भी है सिलसिला-ए-अहल-ए-चिश्त में
Ahmad Faraz
Jaun Eliya
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Gulzar
Parveen Shakir
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वहशत में बसर होते हैं अय्याम-ए-शबाब आह
लेटे जो साथ हाथ लगा बोसा-ए-दहन
पहुँचा है उस के पास ये आईना टूट के
अक्स-ए-रुख़-ए-गुलगूँ से तमाशा नज़र आया
दम भर रहे हबाब-ए-नमत काएनात में
मस्तों में फूट पड़ गई आते ही यार के
करता रहा लुग़ात की तहक़ीक़ उम्र भर
गर्मी में तेरे कूचा-नशीनों के वास्ते
एहसान नहीं ख़्वाब में आए जो मिरे पास
क्यूँकर शिकार-ए-हुस्न न खेलें यहाँ के लोग
तेग़-ए-अबरू के मुझे ज़ख़्म-ए-कुहन याद आए
दिल तो पज़मुर्दा है दाग़-ए-गुल्सिताँ हों तो क्या