तेग़-ए-अबरू के मुझे ज़ख़्म-ए-कुहन याद आए
माह-ए-नौ को भी मैं तलवार पुरानी समझा
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पहुँचा है उस के पास ये आईना टूट के
जुदाई के सदमों को टाले हुए हैं
उलझा है मगर ज़ुल्फ़ में तक़रीर का लच्छा
आमद तसव्वुर-ए-बुत-ए-बेदाद-गर की है
फ़ौज-ए-मिज़्गाँ का कुछ इरादा है
क़ैदी हूँ सर-ए-ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर से पहले
आस्तीन-ए-सब्र से बाहर न निकलेगा अगर
फोड़े ने सफ़र में सख़्त घबराया है
होती है हार जीत पिन्हाँ बात बात में
कुछ नहीं हासिल सिपर को चीर को या तलवार तोड़
काबे से मुझ को लाए सवाद-ए-कुनिश्त में
दस बीस हर महीने में अबरू नज़र पड़े