तिरे कूचे से जुदा रोते हैं शब को आशिक़
आज-कल बारिश-ए-शबनम है चमन से बाहर
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है ईद लाओ मय-ए-लाला-फ़ाम उठ उठ कर
गर्मी-ए-हुस्न की मिदहत का सिला लेते हैं
राह कर के उस बुत-ए-गुमराह ने धोका दिया
आँखों में नहीं सिलसिला-ए-अश्क शब-ओ-रोज़
करते हैं मस्जिदों में शिकवा-ए-मस्ताँ ज़ाहिद
बोसे हैं बे-हिसाब हर दिन के
आँखों में खटकती ही रही दौलत-ए-दुनिया
तेरी फ़ुर्क़त में शराब-ए-ऐश का तोड़ा हुआ
झूटी बातें मुझे याद आईं जो उस की शब-ए-हिज्र
आशिक़ ही फ़क़त नहीं है जंजालों में
दिल तो पज़मुर्दा है दाग़-ए-गुल्सिताँ हों तो क्या
करता है बाग़-ए-दहर में नैरंगियाँ बसंत