बोसे हैं बे-हिसाब हर दिन के
वा'दे क्यूँ टालते हो गिन गिन के
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साबित रहा फ़लक मिरे नालों के सामने
फ़स्ल-ए-बहार आई है पैमाना चाहिए
उस्ताद के एहसान का कर शुक्र 'मुनीर' आज
हो गया मामूर आलम जब किया दरबार-ए-आम
हाथ मिलवाते हो तरसाए गिलौरी के लिए
अपने आक़ा की हर घड़ी याद में हूँ
बुतों के घर की तरफ़ काबे के सफ़र से फिरे
रोज़ दिलहा-ए-मै-कशाँ टूटे
फोड़े ने सफ़र में सख़्त घबराया है
आँखें ख़ुदा ने बख़्शी हैं रोने के वास्ते
बे फ़ाएदा रखता नहीं सर हाथों पर
ऐ रश्क-ए-माह रात को मुट्ठी न खोलना