हाथ मिलवाते हो तरसाए गिलौरी के लिए
कफ़-ए-अफ़्सोस न मल जाए कहीं पाँव में
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Gulzar
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Wasi Shah
Jaun Eliya
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Faiz Ahmad Faiz
Parveen Shakir
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की तर्क मैं ने शैख़-ओ-बरहमन की पैरवी
हाल-ए-पोशीदा खुला सामान-ए-इबरत देख कर
विर्द-ए-इस्म-ए-ज़ात खोला चाहता है ये गिरह
मुँह तक भी ज़ोफ़ से नहीं आ सकती दिल की बात
किसी से उठ नहीं सकने का बोझ मस्तों का
का'बे से मुझ को लाई सवाद-ए-कुनिश्त में
गालियाँ ज़ख़्म-ए-कुहन को देख कर देती हो क्यूँ
ऐ रश्क-ए-माह रात को मुट्ठी न खोलना
उम्र बाक़ी राह-ए-जानाँ में बसर होने को है
उसी हूर की रंगत उड़ी रोने से हमारे
ज़ख़्मी न भूल जाएँ मज़े दिल की टीस के
क्यूँकर शिकार-ए-हुस्न न खेलें यहाँ के लोग