ऐ रश्क-ए-माह रात को मुट्ठी न खोलना
मेहदी का चोर हाथ से जाए न छूट के
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बोसा-ए-लब ग़ैर को देते हो तुम
क़ैद से नजात
पड़ गई जान जो उस तिफ़्ल ने पत्थर मारे
आमद तसव्वुर-ए-बुत-ए-बेदाद-गर की है
देखा है आशिक़ों ने बरहमन की आँख से
मुँह तक भी ज़ोफ़ से नहीं आ सकती दिल की बात
सख़्त-जानी का सही अफ़्साना है
हो गया हूँ मैं नक़ाब-ए-रू-ए-रौशन पर फ़क़ीर
ख़ूबान-ए-फुसूँ-गर से हम उलझा नहीं करते
हाथ मलवाती हैं हूरों को तुम्हारी चूड़ियाँ
बे-इल्म शाइरों का गिला क्या है ऐ 'मुनीर'
सदमे से बाल शीशा-ए-गर्दूँ में पड़ गया