ऐ बुत ये है नमाज़ कि है घात क़त्ल की
निय्यत अदा की है कि इशारे क़ज़ा के हैं
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दौलत के दाँत कुंद किए मेरे हिर्स ने
फ़ौज-ए-मिज़्गाँ का कुछ इरादा है
जान कर उस बुत का घर काबा को सज्दा कर लिया
असर कर के आह-ए-रसा फिर गई
मलते हैं ख़ूब-रू तिरे ख़ेमे से छातियाँ
गर्मी-ए-हुस्न की मिदहत का सिला लेते हैं
राह कर के उस बुत-ए-गुमराह ने धोका दिया
ग़म सहते हैं पर ग़म्ज़ा-ए-बेजा नहीं उठता
सब्र कब तक राह पैदा हो कि ऐ दिल जान जाए
अपने आक़ा की हर घड़ी याद में हूँ
दश्त-ए-वहशत में नहीं मिलता है साया काँपता
हमारी रूह जो तेरी गली में आई है