आँखें ख़ुदा ने बख़्शी हैं रोने के वास्ते
दो कश्तियाँ मिली हैं डुबोने के वास्ते
Wasi Shah
Mohsin Naqvi
Ahmad Faraz
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Gulzar
Anwar Masood
Parveen Shakir
Javed Akhtar
Rahat Indori
Faiz Ahmad Faiz
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सिलसिला गबरू मुसलमाँ की अदावत का मिटा
ग़म सहते हैं पर ग़म्ज़ा-ए-बेजा नहीं उठता
कब पान रक़ीबों को इनायत नहीं होते
एहसान नहीं ख़्वाब में आए जो मिरे पास
बोसा-ए-लब ग़ैर को देते हो तुम
ख़ूबान-ए-फुसूँ-गर से हम उलझा नहीं करते
पहुँचा है उस के पास ये आईना टूट के
जाती है दूर बात निकल कर ज़बान से
उलझा है मगर ज़ुल्फ़ में तक़रीर का लच्छा
उम्र बाक़ी राह-ए-जानाँ में बसर होने को है
तेरे हाथों से मिटेगा नक़्श-ए-हस्ती एक दिन
सुनती है रोज़ नग़्मा-ए-ज़ंजीर-ए-आशिक़ाँ