पहुँचा है उस के पास ये आईना टूट के
किस से मिला है शीशा-ए-दिल हम से फूट के
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दश्त-ए-वहशत में नहीं मिलता है साया काँपता
शर्म कब तक ऐ परी ला हाथ कर इक़रार-ए-वस्ल
बे फ़ाएदा रखता नहीं सर हाथों पर
कलकत्ता को डाक में चला हूँ जो मैं आह
बे-इल्म शाइरों का गिला क्या है ऐ 'मुनीर'
तेग़-ए-अबरू के मुझे ज़ख़्म-ए-कुहन याद आए
तारीफ़ रोज़ लेते हो अपने ग़ुरूर की
तिरे कूचे से जुदा रोते हैं शब को आशिक़
तेरे हाथों से मिटेगा नक़्श-ए-हस्ती एक दिन
देखा है आशिक़ों ने बरहमन की आँख से
राह में सूरत-ए-नक़्श-ए-कफ़-ए-पा रहता हूँ
है ईद लाओ मय-ए-लाला-फ़ाम उठ उठ कर