पाया तबीब ने जो तिरी ज़ुल्फ़ का मरीज़
शामिल दवा में मुश्क-ए-शब-ए-तार कर दिया
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मज़मून अगर राह में हाथ आता है
विर्द-ए-इस्म-ए-ज़ात खोला चाहता है ये गिरह
कोठे पे चेहरा-ए-पुर-नूर दिखाया सर-ए-शाम
पड़ गई जान जो उस तिफ़्ल ने पत्थर मारे
जान कर उस बुत का घर काबा को सज्दा कर लिया
लेटे जो साथ हाथ लगा बोसा-ए-दहन
हाथ मलवाती हैं हूरों को तुम्हारी चूड़ियाँ
आस्तीन-ए-सब्र से बाहर न निकलेगा अगर
कुछ नहीं हासिल सिपर को चीर को या तलवार तोड़
किस तरह ख़ुश हों शाम को वो चाँद देख कर
सख़्त-जानी का सही अफ़्साना है
पहुँचा है उस के पास ये आईना टूट के