शर्म कब तक ऐ परी ला हाथ कर इक़रार-ए-वस्ल
अपने दिल को सख़्त कर के रिश्ता-ए-इंकार तोड़
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कलकत्ता को डाक में चला हूँ जो मैं आह
ज़ख़्मी न भूल जाएँ मज़े दिल की टीस के
उलझा है मगर ज़ुल्फ़ में तक़रीर का लच्छा
मलते हैं ख़ूब-रू तिरे ख़ेमे से छातियाँ
वहाँ पहुँच नहीं सकतीं तुम्हारी ज़ुल्फ़ें भी
तेग़-ए-अबरू के मुझे ज़ख़्म-ए-कुहन याद आए
इन रोज़ों लुत्फ़-ए-हुस्न है आओ तो बात है
ऐ रश्क-ए-माह रात को मुट्ठी न खोलना
किसी से उठ नहीं सकने का बोझ मस्तों का
पड़ गई जान जो उस तिफ़्ल ने पत्थर मारे
शुक्र है जामा से बाहर वो हुआ ग़ुस्से में
है ईद लाओ मय-ए-लाला-फ़ाम उठ उठ कर