शबनम की है अंगिया तले अंगिया की पसीना
क्या लुत्फ़ है शबनम तह-ए-शबनम नज़र आई
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राह कर के उस बुत-ए-गुमराह ने धोका दिया
बे-वक़्त जो घर से वो मसीहा निकल आया
जर्राह के सामने खोला फोड़ा
विर्द-ए-इस्म-ए-ज़ात खोला चाहता है ये गिरह
दस बीस हर महीने में अबरू नज़र पड़े
ऐसी हुई सरसब्ज़-शिकायत की कड़ी बात
ख़ूबान-ए-फुसूँ-गर से हम उलझा नहीं करते
दुश्मन की मलामत बला है
जलसों में गुज़रने लगी फिर रात तुम्हारी
उसी हूर की रंगत उड़ी रोने से हमारे
ख़ाकसारों में नहीं ऐसी किसी की तौक़ीर