तारीफ़ रोज़ लेते हो अपने ग़ुरूर की
मुझ को बरहमन-ए-बुत-ए-पिंदार कर दिया
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हुज़ूर-ए-दुख़्तर-ए-रज़ हाथ पाँव काँपते हैं
वो ज़ुल्फ़ हवा से मुझे बरहम नज़र आई
कब पान रक़ीबों को इनायत नहीं होते
फ़स्ल-ए-बहार आई है पैमाना चाहिए
सरसों जो फूली दीदा-ए-जाम-ए-शराब में
बे-इल्म शाइरों का गिला क्या है ऐ 'मुनीर'
आमद तसव्वुर-ए-बुत-ए-बेदाद-गर की है
दिल ले के पलकें फिर गईं ज़ुल्फ़ों की आड़ में
मेरी शम-ए-अंजुमन में गुल है गुल में ख़ाक है
मुज़्तरिब आशिक़-ए-बे-जाँ न हुआ था सो हुआ
मुझ को अपने साथ ही तेरे सुलाने की हवस
हमारी रूह जो तेरी गली में आई है