सुर्ख़ी शफ़क़ की ज़र्द हो गालों के सामने
पानी भरे घटा तिरे बालों के सामने
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उसी हूर की रंगत उड़ी रोने से हमारे
अशआ'र मेरे सुन के वो ख़ामोश हो गया
वहशत में बसर होते हैं अय्याम-ए-शबाब आह
बस कि है पेश-ए-नज़र पस्त-ओ-बुलंद-ए-आलम
ख़ाल-ओ-ख़त से ऐब उस के रू-ए-अक़्दस को नहीं
किब्र भी है शिर्क ऐ ज़ाहिद मुवह्हिद के हुज़ूर
करता है बाग़-ए-दहर में नैरंगियाँ बसंत
हुज़ूर-ए-दुख़्तर-ए-रज़ हाथ पाँव काँपते हैं
कलकत्ता को डाक में चला हूँ जो मैं आह
बोसा-ए-लब ग़ैर को देते हो तुम
दौलत के दाँत कुंद किए मेरे हिर्स ने
तिरछी नज़र से देखिए तलवार चल गई