वहशत में बसर होते हैं अय्याम-ए-शबाब आह
ये शाम-ए-जवानी है कि साया है हिरन का
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मुंडेरों पर छिड़क दे अपने कुश्तों का लहू ऐ गुल
मैं जुस्तुजू से कुफ़्र में पहुँचा ख़ुदा के पास
क्या मज़ा पर्दा-ए-वहदत में है खुलता नहीं हाल
ग़म सहते हैं पर ग़म्ज़ा-ए-बेजा नहीं उठता
ख़ूब ताज़ीर-ए-गुनाह-ए-इश्क़ है
चेहरा तमाम सुर्ख़ है महरम के रंग से
मस्तों में फूट पड़ गई आते ही यार के
तारीफ़ रोज़ लेते हो अपने ग़ुरूर की
इन रोज़ों लुत्फ़-ए-हुस्न है आओ तो बात है
दुनिया से दाग़-ए-ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम ले गया
लगाईं ताक के उस मस्त ने जो तलवारें
कलकत्ता को डाक में चला हूँ जो मैं आह