मुंडेरों पर छिड़क दे अपने कुश्तों का लहू ऐ गुल
उगेगा सब्ज़ा-ए-शमसीर दीवार-ए-गुलिस्ताँ पर
Wasi Shah
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शुक्र है जामा से बाहर वो हुआ ग़ुस्से में
पड़ गई जान जो उस तिफ़्ल ने पत्थर मारे
बढ़ चला इश्क़ तो दिल छोड़ के दुनिया उट्ठा
सदमे से बाल शीशा-ए-गर्दूँ में पड़ गया
रोज़ दिल-हा-ए-मै-कशाँ टूटे
तेरी फ़ुर्क़त में शराब-ए-ऐश का तोड़ा हुआ
याद उस बुत की नमाज़ों में जो आई मुझ को
वो बहर-ए-करम जो मेहरबाँ हो जाए
मस्तों में फूट पड़ गई आते ही यार के
ग़म सहते हैं पर ग़म्ज़ा-ए-बेजा नहीं उठता
ख़ूबान-ए-फुसूँ-गर से हम उलझा नहीं करते
हुज़ूर-ए-दुख़्तर-ए-रज़ हाथ पाँव काँपते हैं