मुझ को अपने साथ ही तेरे सुलाने की हवस
इस तरह है बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता के जगाने की हवस
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गर्मी-ए-हुस्न की मिदहत का सिला लेते हैं
जान कर उस बुत का घर काबा को सज्दा कर लिया
जब बढ़ गई उम्र घट गई ज़ीस्त
बोसे हैं बे-हिसाब हर दिन के
उस बुत के नहाने से हुआ साफ़ ये पानी
दौलत के दाँत कुंद किए मेरे हिर्स ने
फोड़े ने सफ़र में सख़्त घबराया है
जब कभी मस्की कटोरी क्या सदा पैदा हुई
आमद तसव्वुर-ए-बुत-ए-बेदाद-गर की है
ऐसी हुई सरसब्ज़-शिकायत की कड़ी बात
हर चंद गुनाहों से हूँ मैं नामा सियाह
आशिक़ ही फ़क़त नहीं है जंजालों में