मिल मिल गए हैं ख़ाक में लाखों दिल-ए-रौशन
हर ज़र्रा मुझे अर्श का तारा नज़र आया
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हो गया हूँ मैं नक़ाब-ए-रू-ए-रौशन पर फ़क़ीर
मलते हैं ख़ूब-रू तिरे ख़ेमे से छातियाँ
आशिक़ बना के हम को जलाते हैं शम्अ'-रू
जुदाई के सदमों को टाले हुए हैं
जलसों में गुज़रने लगी फिर रात तुम्हारी
बस कि है पेश-ए-नज़र पस्त-ओ-बुलंद-ए-आलम
ख़ाकसारी से जो ग़ाफ़िल दिल-ए-ग़म्माज़ हुआ
रोज़ दिलहा-ए-मै-कशाँ टूटे
बिगड़ी हुई है सारी हसीनों की बनावट
ख़ाल-ओ-ख़त से ऐब उस के रू-ए-अक़्दस को नहीं
कभी पयाम न भेजा बुतों ने मेरे पास
सुर्ख़ी शफ़क़ की ज़र्द हो गालों के सामने