ख़ाल-ओ-ख़त से ऐब उस के रू-ए-अक़्दस को नहीं
हुस्न है मुसहफ़ में होना नुक़्ता-ए-ए'राब का
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सुर्ख़ी शफ़क़ की ज़र्द हो गालों के सामने
फोड़े ने सफ़र में सख़्त घबराया है
क्या मज़ा पर्दा-ए-वहदत में है खुलता नहीं हाल
शब के हैं माह मेहर हैं दिन के
कभी पयाम न भेजा बुतों ने मेरे पास
लग गई आग आतिश-ए-रुख़ से नक़ाब-ए-यार में
ज़ख़्मी न भूल जाएँ मज़े दिल की टीस के
क्यूँकर शिकार-ए-हुस्न न खेलें यहाँ के लोग
जान देता हूँ मगर आती नहीं
आख़िर को राह-ए-इश्क़ में हम सर के बल गए
हल्क़ा हल्क़ा घर बना लख़्त-ए-दिल-ए-बेताब का
पाया तबीब ने जो तिरी ज़ुल्फ़ का मरीज़