किब्र भी है शिर्क ऐ ज़ाहिद मुवह्हिद के हुज़ूर
ले के तेशा ख़ाकसारी का बुत-ए-पिंदार तोड़
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मस्तों में फूट पड़ गई आते ही यार के
हल्क़ा हल्क़ा घर बना लख़्त-ए-दिल-ए-बेताब का
भटके फिरे दो अमला-ए-दैर-ओ-हरम में हम
आख़िर को राह-ए-इश्क़ में हम सर के बल गए
सरसों जो फूली दीदा-ए-जाम-ए-शराब में
रोज़ दिल-हा-ए-मै-कशाँ टूटे
ग़म सहते हैं पर ग़म्ज़ा-ए-बेजा नहीं उठता
अपने आक़ा की हर घड़ी याद में हूँ
तारीफ़ रोज़ लेते हो अपने ग़ुरूर की
का'बे से मुझ को लाई सवाद-ए-कुनिश्त में
पड़ गई जान जो उस तिफ़्ल ने पत्थर मारे
मेरी शम-ए-अंजुमन में गुल है गुल में ख़ाक है