भटके फिरे दो अमला-ए-दैर-ओ-हरम में हम
इस सम्त कुफ़्र उस तरफ़ इस्लाम ले गया
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बिगड़ी हुई है सारी हसीनों की बनावट
हमेशा मय-कदे में ख़ुश-क़दों का मजमा' है
गर्मी में तेरे कूचा-नशीनों के वास्ते
पहुँचा है उस के पास ये आईना टूट के
फ़ौज-ए-मिज़्गाँ का कुछ इरादा है
तुम्हारे घर से पस-ए-मर्ग किस के घर जाता
अशआ'र मेरे सुन के वो ख़ामोश हो गया
और मुझ सा जान देने का तमन्नाई नहीं
मस्तों में फूट पड़ गई आते ही यार के
सख़्ती-ए-दहर हुए बहर-ए-सुख़न में आसाँ
तेरी फ़ुर्क़त में शराब-ए-ऐश का तोड़ा हुआ
बे-इल्म शाइरों का गिला क्या है ऐ 'मुनीर'