गर्मी में तेरे कूचा-नशीनों के वास्ते
पंखे हैं क़ुदसियों के परों के बहिश्त में
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लेटे जो साथ हाथ लगा बोसा-ए-दहन
मेरी शम-ए-अंजुमन में गुल है गुल में ख़ाक है
हमारी रूह जो तेरी गली में आई है
सिलसिला गबरू मुसलमाँ की अदावत का मिटा
मुज़्तरिब आशिक़-ए-बे-जाँ न हुआ था सो हुआ
पहुँचा है उस के पास ये आईना टूट के
उस्ताद के एहसान का कर शुक्र 'मुनीर' आज
रोज़ दिल-हा-ए-मै-कशाँ टूटे
नशे में सहवन कर ली तौबा
मज़मून अगर राह में हाथ आता है
बे-वक़्त जो घर से वो मसीहा निकल आया
ख़ूब ताज़ीर-ए-गुनाह-ए-इश्क़ है