जिस रोज़ मैं गिनता हूँ तिरे आने की घड़ियाँ
सूरज को बना देती है सोने की घड़ी बात
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देखा है आशिक़ों ने बरहमन की आँख से
हुज़ूर-ए-दुख़्तर-ए-रज़ हाथ पाँव काँपते हैं
हर चंद गुनाहों से हूँ मैं नामा सियाह
हाथ मिलवाते हो तरसाए गिलौरी के लिए
किब्र भी है शिर्क ऐ ज़ाहिद मुवह्हिद के हुज़ूर
किस तरह ख़ुश हों शाम को वो चाँद देख कर
और मुझ सा जान देने का तमन्नाई नहीं
दस बीस हर महीने में अबरू नज़र पड़े
फ़र्ज़ है दरिया-दिलों पर ख़ाकसारों की मदद
ग़म सहते हैं पर ग़म्ज़ा-ए-बेजा नहीं उठता
दिल तो पज़मुर्दा है दाग़-ए-गुल्सिताँ हों तो क्या