फ़र्ज़ है दरिया-दिलों पर ख़ाकसारों की मदद
फ़र्श सहरा के लिए लाज़िम हुआ सैलाब का
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गर्मी-ए-हुस्न की मिदहत का सिला लेते हैं
जो ज़ौक़ है कि हो दरयाफ़्त आबरू-ए-शराब
नाज़ुक ऐसा नहीं किसी का पेट
नमाज़ शुक्र की पढ़ता है जाम तोड़ के शैख़
हाथ मलवाती हैं हूरों को तुम्हारी चूड़ियाँ
तारीफ़ रोज़ लेते हो अपने ग़ुरूर की
कुफ्र-ओ-इस्लाम ने मक़्सद को पहुँचने न दिया
दम भर रहे हबाब-ए-नमत काएनात में
आते नहीं हैं दीदा-गिर्यां के सामने
उसी हूर की रंगत उड़ी रोने से हमारे
बिगड़ी हुई है सारी हसीनों की बनावट
ज़िंदा-ए-जावेद हैं मारा जिन्हें उस शोख़ ने