आते नहीं हैं दीदा-गिर्यां के सामने
बादल भी करते हैं मिरी बरसात का लिहाज़
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तुम्हारे घर से पस-ए-मर्ग किस के घर जाता
नमाज़ शुक्र की पढ़ता है जाम तोड़ के शैख़
सुर्ख़ी शफ़क़ की ज़र्द हो गालों के सामने
जाती है दूर बात निकल कर ज़बान से
ऐ बुत ये है नमाज़ कि है घात क़त्ल की
अक्स-ए-रुख़-ए-गुलगूँ से तमाशा नज़र आया
सुनती है रोज़ नग़्मा-ए-ज़ंजीर-ए-आशिक़ाँ
तिरछी नज़र से देखिए तलवार चल गई
उलझा है मगर ज़ुल्फ़ में तक़रीर का लच्छा
चेहरा तमाम सुर्ख़ है महरम के रंग से
ग़म सहते हैं पर ग़म्ज़ा-ए-बेजा नहीं उठता
नशे में सहवन कर ली तौबा