मैं रोता हूँ आह-ए-रसा बंद है
बरसता है पानी हवा बंद है
नहीं मुर्ग़-ए-जाँ जिस्म-ए-सद-चाक में
हमारे क़फ़स में हुमा बंद है
कहाँ क़ाफ़िला तक रसाई मुझे
मैं हूँ लंग शोर-ए-दरा बंद है
दिल-ए-वहशी अपना छुटे किस तरह
कि ज़ंजीर-ए-गेसू का पाबंद है
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पेच फ़िक़रे पर किया जाता नहीं
होती है हार जीत पिन्हाँ बात बात में
दम भर रहे हबाब-ए-नमत काएनात में
हर चंद गुनाहों से हूँ मैं नामा सियाह
कब पान रक़ीबों को इनायत नहीं होते
दस बीस हर महीने में अबरू नज़र पड़े
क्यूँकर शिकार-ए-हुस्न न खेलें यहाँ के लोग
क़ैद से नजात
बिगड़ी हुई है सारी हसीनों की बनावट
सरसों जो फूली दीदा-ए-जाम-ए-शराब में
कभी पयाम न भेजा बुतों ने मेरे पास