चेहरे की चाँदनी पे न इतना भी मान कर
वक़्त-ए-सहर तू रंग कभी चाँद का भी देख
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हमारे क़ौल ओ अमल में तज़ाद कितना है
नाम भी अच्छा सा था चेहरा भी था महताब सा
सदा ये किस की है जो दूर से बुलाए मुझे
तुम इक ऐसे शख़्स को पहचानते हो या नहीं
हम कि तजदीद-ए-अहद-ए-वफ़ा कर चले आबरू-ए-जुनूँ कुछ सिवा कर चले
जीते-जी मेरे हर इक मुझ पे ही तन्क़ीद करे
आँखें हैं सुर्ख़ होंट सियह रंग ज़र्द है
मुझे की गई है ये पेशकश कि सज़ा में होंगी रियायतें
जिस को देखो ज़र्द चेहरा आँख पथराई हुई
मिलते ही ख़ुद को आप से वाबस्ता कह दिया
ये मरहले भी मोहब्बत के बाब में आए
वअ'दा जो था निबाह का तुम ने वफ़ा नहीं किया