अल्लाह-रे तेरे सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ की कशिश
जाता है जी उधर ही खिंचा काएनात का
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न वो वादा-ए-सर-ए-राह है न वो दोस्ती न निबाह है
शब शौक़ ले गया था हमें उस के घर तलक
सज्दा-गाह अपनी किए राह के रोड़े पत्थर
आप हर दम जो ये कहते हैं कि तू क्यूँ है खड़ा
दिल को ये इज़्तिरार कैसा है
ज़ेर-ए-नक़ाब आब-गूँ हाए-रे उन की जालियाँ
मैं वो दोज़ख़ हूँ कि आतिश पर मिरी
गर ज़माने की अदावत है यही मुझ से तो मैं
टुकड़ा जहाँ गिरा जिगर-ए-चाक-चाक का
शब जो होली की है मिलने को तिरे मुखड़े से जान
मक़्तल-ए-यार में टुक ले तो चलो ऐ यारो
बैठे बैठे जो हम ऐ यार हँसे और रोए