मक़्तल-ए-यार में टुक ले तो चलो ऐ यारो
वाँ हमें सर से गुज़र जाने का आहंग है आज
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इतने महकूम-ए-बुताँ हैं जो ये काफ़िर चाहें
चीन-ए-पेशानी न दिखलाओ मैं हूँ नाज़ुक-मिज़ाज
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
जी में आती है करूँ उन को मैं इक दिन सीधा
पर्दा-ए-गोश-ए-असीराँ न हुई इक शब-ए-गर्म
धो डालिए ख़ून 'मुसहफ़ी' का
मज़हब की मेरे यार अगर जुस्तुजू करें
क्या अदा से आवे है दीवाना कर के सैर-ए-बाग़
पीछे पड़ी हैं दिल के बे-तरह मेरी आँखें
हर चंद अमर्दों में है इक राह का मज़ा
अदम वालों की सोहबत से भी नफ़रत हो गई अब तो
मुझ से जो मेरी ज़ोहरा मिलती नहीं है अब तक