मक़्सूद है आँखों से तिरा देखना प्यारे
जब तू ही न हो पास तो किस काम की आँखें
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सल्तनत और ही माने रखती है
इस तरफ़ भी कभी आना कि असीरान-ए-क़फ़स
गुल ही इस बाग़ से जाने पे नहीं बैठा कुछ
पहना जो मैं ने जामा-ए-दीवानगी तो इश्क़
जंगल में टेसू फूला और बाग़ में शगूफ़ा
बातें कई ज़बानी मैं ने कही हैं उस से
ऐ 'मुसहफ़ी' अब चखियो मज़ा ज़ोहद का तुम ने
उस के कूचे में पुकारेगा अगर मुझ को रक़ीब
मियाँ सब्र-आज़माई हो चुकी बस
ज़ुल्फ़ों का बिखरना इक तो बला, आरिज़ की झलक फिर वैसी ही
फिर ये कैसा उधेड़-बुन सा लगा
अभी आग़ाज़-ए-मोहब्बत है कुछ इस का अंजाम