मंज़िल-ए-मर्ग के आ पहुँचे हैं नज़दीक अब तो
कर मदद ऐ नफ़स-ए-बाज़-पसीं थोड़ी सी
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कहूँ तो किस से कहूँ अपना दर्द-ए-दिल मैं ग़रीब
इतनी तो मुझ को सैर-ए-चमन की हवस न थी
शेर क्या जिस में नोक-झोक न हो
कभी तो बैठूँ हूँ जा और कभी उठ आता हूँ
मुझ से इक बात किया कीजिए बस
ऐ 'मुसहफ़ी' शायर नहीं पूरब में हुआ मैं
जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
कोई घर बैठे क्या जाने अज़िय्यत राह चलने की
नसीम मुज़्तरिब-उल-हाल जाए थे पीछे
इसी सबब तो परेशाँ रहा मैं दुनिया में
याँ रख़्ना-हा-ए-सीना कुदूरत से हैं फटे
हर्बा है आशिक़ों का फ़क़त आह-ए-पेचदार