ऐ 'मुसहफ़ी' शायर नहीं पूरब में हुआ मैं
दिल्ली में भी चोरी मिरा दीवान गया था
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पर्दा उठा के मेहर को रुख़ की झलक दिखा कि यूँ
उस्ताद कोई ज़ोर मिला क़ैस को शायद
कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में फिरता हूँ भटकता कब का
जब नबी-साहिब में कोह-ओ-दश्त से आई बसंत
मर जाऊँगा मैं या वही जावेगा मुझे मार
अक्स से अपने अगर राह नहीं तुम को तो जान
हम गबरू हम मुसलमाँ हम जम्अ हम परेशाँ
आसाँ नहीं है तन्हा दर उस का बाज़ करना
तिरा शौक़-ए-दीदार पैदा हुआ है
नमली और न दूदी है न मंशारी है
जो परी भी रू-ब-रू हो तो परी को मैं न देखूँ
रेख़्ता-गोई की बुनियाद 'वली' ने डाली