ऐ 'मुस्हफ़ी' सद-शुक्र हुआ वस्ल मयस्सर
इफ़्तार किया रोज़े में उस लब के रोतब से
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मातम में फ़ौत-ए-उम्र के रोता हूँ रात दिन
यारान-ए-सुख़न-गो की है वो कंपनी अपनी
तीन हिस्से हैं ज़मीं के ग़र्क़-ए-दरिया-ए-मुहीत
कह दो मजनूँ से करे अपनी सवारी तय्यार
जाड़ों में है ये रंग कि अपने लिहाफ़ के
काम अज़-बस-कि ज़माने का हुआ है बर-अक्स
मैं ने कहा था उस से अहवाल-ए-गिरिया अपना
तख़्ता-ए-आब-ए-चमन क्यूँ न नज़र आवे सपाट
ऐ इश्क़ तेरी अब के वो तासीर क्या हुई
जान को जैसे निकाले है कोई क़ालिब से
वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
सिधारी क़ुव्वत-ए-दिल ताब और ताक़त से कह दीजो