वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
और तुम जा के हुए शीर-ओ-शकर और कहीं
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सब उठ्ठे बज़्म से और अपने अपने घर को चले
रुख़ से लहरा कर ज़नख़दाँ के हैं माइल मु-ए-ज़ुल्फ़
'मुसहफ़ी' कुछ कम नसारा से नहीं
मग़रिब में उस को जंग है क्या जाने किस के साथ
सैराब आब-ए-जू से क़दह और क़दह से हम
तेरी क़सम है अपना तो रुक जाए जी वहीं
ऐ फ़लक किस ने कहा था तुझे ये तो बतला
तारीकी में होता है उसे वस्ल मयस्सर
जब घर से वो बाद-ए-माह निकले
ख़्वाहिश-ए-वस्ल तो रखता हूँ बहुत जी में वले
जूँ ही ज़ंजीर के पास आए पाँव
ज़ख़्म है और नमक फ़िशानी है