रुख़ से लहरा कर ज़नख़दाँ के हैं माइल मु-ए-ज़ुल्फ़
दौड़ता है चाह की जानिब ही प्यासा धूप में
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शब में वाँ जाऊँ तो जाऊँ किस तरह
आज पलकों को जाते हैं आँसू
रहने पे जो मस्जिद के मिरी शैख़ की बिगड़ी
हूँ शैख़ मुसहफ़ी का मैं हैरान-ए-शाएरी
गोया गिरह बहाने की एक उस पे थी लगी
वहशत है मेरे दिल को तो तदबीर-ए-वस्ल कर
ऐसी आज़ुर्दगी क्या थी हमें इस कूचे से
मैं निगाह-ए-पाक से देखे था तिरे हुस्न-ए-पाक को इस पे भी
मिज़्गाँ-ज़दन से कम है ज़मान-ए-नमाज़-ए-इश्क़
जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
हर-चंद बहार ओ बाग़ है ये
वाँ रसाई ही नहीं मजनून-ए-सहरा-गर्द की