गोया गिरह बहाने की एक उस पे थी लगी
नाख़ुन के लगते ही जो न ठहरा इज़ार-बंद
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औरों की तरफ़ तू देखता है
तरह ओले की जो ख़िल्क़त में हम आबी होते
कब सबा सू-ए-असीरान-ए-क़फ़स आती है
शब मगर रह गई थोड़ी जो नज़र आता है
चेहरे पे एक के भी न पाया वफ़ा का रंग
नित जिन आँखों में रहे था तेरी सूरत का ख़याल
छुआ हो अगर मैं ने काकुल को तेरी
जा जो इक दिन मिल गई पहलू में शोख़ी देखियो
दिल डूब गया टूट गया सब्र का लंगर
मैं वो गर्दन-ज़दनी हूँ कि तमाशे को मिरे
दूर से मुझ को न मुँह अपना दिखाओ जाओ
तर्रार ज़ुल्फ़-ए-यार अगर चर्ख़ पर चढ़े