तर्रार ज़ुल्फ़-ए-यार अगर चर्ख़ पर चढ़े
सोना उतार ले वरक़-ए-आफ़्ताब से
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अहल-ए-नसीहत जितने हैं हाँ उन को समझा दें ये लोग
अब ख़ुदा मग़फ़िरत करे उस की
आँखों को फोड़ा डालूँ या दिल को तोड़ डालूँ
साक़ी मय-ख़ाना का गर कम-दही पर है मिज़ाज
मुफ़्लिस के दिए की सी तिरा दाग़-ए-दिल अपना
ऐ 'मुसहफ़ी' उस्ताद-ए-फ़न-ए-रेख़्ता-गोई
ये कब ख़याल में लाते हैं ताज-ए-शाही को
यार रोते रहे सब रूह ने परवाज़ किया
कभू तक के दर को खड़े रहे कभू आह भर के चले गए
होंटों तक आते आते हुई वो भी सर्द आह
हम न शाना न सबा हैं नहीं खुलता है ये भेद
है माह कि आफ़्ताब क्या है