साक़ी मय-ख़ाना का गर कम-दही पर है मिज़ाज
हम भी यक फ़िंजाँ बना लेवेंगे साग़र तोड़ कर
Rahat Indori
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Allama Iqbal
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Faiz Ahmad Faiz
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ख़्वाब था या ख़याल था क्या था
करता हूँ सवाल जिस के दर पर
आसाँ नहीं है तन्हा दर उस का बाज़ करना
जम्अ रखते नहीं, नहीं मालूम
मैं कर के चला बातें और उस शोख़ ने वोहीं
फिर ये कैसा उधेड़-बुन सा लगा
नज़्र को किस गुल-ए-नौ-रस्ता के दामन में नसीम
दिल-ए-मायूस को पहने हुए आती हैं नज़र
किस ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम के आई है मुक़ाबिल
लोग कहते हैं मोहब्बत में असर होता है
नख़्ल लाले जा जब ज़मीं से उठा
फिर आई ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल की लहर पेश-ए-नज़र