सामने उस के लगूँ रोने तो झुँझला के कहे
याँ से ले जाइए ये दीदा-ए-तर और कहीं
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एक तो बैठे हो दिल को मिरे खो और सुनो
है मौसम-ए-बहार का आग़ाज़ क़हर है
सोते हैं हम ज़मीं पर क्या ख़ाक ज़िंदगी है
हाथ दोनों कफ़-ए-अफ़्सोस की सूरत लिक्खे
तन तो कहाँ है शोला-ए-फ़ानूस की तरह
दिल चुराना ये काम है तेरा
आँखें न चुरा 'मुसहफ़ी'-ए-रेख़्ता-गो से
मारे हया के हम से वो कल बोलता न था
कशिश ने इश्क़ की क्या काम कुछ किया थोड़ा
मु-ए-जुज़ 'मीर' जो थे फ़न के उस्ताद
मिरा सलाम वो लेता नहीं मगर समझा
हर-चंद बहार ओ बाग़ है ये