कशिश ने इश्क़ की क्या काम कुछ किया थोड़ा
हज़ार बार तो राँझा को लाई हीर के घर
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सीना है पुर्ज़े पुर्ज़े जा-ए-रफ़ू नहीं याँ
जब कि बे-पर्दा तू हुआ होगा
ख़ूब-रूयों की मोहब्बत से करें क्यूँ तौबा
जान को जैसे निकाले है कोई क़ालिब से
लब बंद ही रक्खो, नहीं फिर और करेगा
सरक ऐ मौज सलामत तो रह-ए-साहिल ले
पहना जो मैं ने जामा-ए-दीवानगी तो इश्क़
पीछा किसी तरह ये मिरा छोड़ता नहीं
चेहरे पे एक के भी न पाया वफ़ा का रंग
आह हमराज़ कौन है अपना
सोते हैं हम ज़मीं पर क्या ख़ाक ज़िंदगी है
बस-कि हों मिल्लत-ओ-मज़हब से जहाँ के आज़ाद