काश सोता ही रहूँ मैं कि नहीं चाहता दिल
हर सहर उठ के रुख़-ए-गब्र-ओ-मुसलमाँ देखूँ
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गिर्या दिल को न सू-ए-चश्म बहाओ
ऐ इश्क़ जहाँ है यार मेरा
दिल और सियह हो गए माह-ए-रमज़ाँ में
सौ बार तुम तो सामने आ कर चले गए
लोग कहते हैं मोहब्बत में असर होता है
उम्र-ए-पस-माँदा कुछ दलील सी है
गर अब्र घिरा हुआ खड़ा है
जितना कि ये दुनिया में हमें ख़्वार रखे है
गर हो तमंचा-बंद वो रश्क-ए-फ़िरंगियाँ
मैं ने किस चश्म के अफ़्साने को आग़ाज़ किया
मैं तो समझूँगा जो समझाते हो मुझ को हर घड़ी
ने बुत है न सज्दा है ने बादा न मस्ती है