मैं ने किस चश्म के अफ़्साने को आग़ाज़ किया
जिस को सुनते ही मिरे ख़्वाब ने परवाज़ किया
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लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं
बिकते हैं शहर में गुल-ए-बे-ख़ार हर तरफ़
लुट के मंज़िल से कोई यूँ तो न आया होगा
पहलू में रह गया यूँ ये दिल तड़प तड़प कर
न प्यारे ऊपर ऊपर माल हर सुब्ह-ओ-मसा चक्खो
काँटा हुआ हूँ सूख के याँ तक कि अब सुनार
रात पर्दे से ज़रा मुँह जो किसू का निकला
इक बिजली की कौंद हम ने देखी
होती नहीं है दिल को तसल्ली किसी तरह
शीशा-ए-मय की तरह ऐ साक़ी
रहमत तिरी ऐ नाक़ा-कश-ए-महमिल-ए-हाजी
हर्बा है आशिक़ों का फ़क़त आह-ए-पेचदार